Disaster management: प्राकृतिक आपदाएं, वनाग्नि , भूस्खलन, भूधसाव, भूकंप, बादल फटने, बाढ़ हिमस्खलन से उत्पन्न समस्या
देहरादून: उत्तराखंड एवं हिमालई राज्यों की ज्वलंत चुनौतियों जैसे कि प्राकृतिक आपदाएं,(environmental protection) वनाग्नि , भूस्खलन, भूधसाव, भूकंप, बादल फटने, बाढ़ हिमस्खलन से उत्पन्न समस्याओं जन धन हानि(Disaster management) के समाधान के लिए बनने वाली नीतियों को इस प्रकार से बनाना होगा जिसमें स्थानीय नागरिकों को उसमें शामिल किया जाए और उनकी रुचि उनके हित व उनकी की सहभागिता उसमें सुनिश्चित की जाए तभी वह नीतियां कारगर व प्रभावी होगी यह बात आज जलवायु परिवर्तन अनुकूलन पर दो दिवसीय राष्ट्रीय परामर्श कार्यक्रम के समापन सत्र में बतौर विशिष्ट अतिथि बोलते हुए उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष संगठन सूर्यकांत धस्माना ने कही।
अपने घर की रक्षा करेंगे तब देश और दुनिया की रक्षा में योगदान कर सकेंगे
उन्होंने कहा कि केवल बड़ी बड़ी नीतियों की घोषणा मात्र से समस्याओं का समाधान संभव नहीं है बल्कि उन नीतियों को आम नागरिक से जोड़ कर बनाने से वे प्रभावी होंगी। धस्माना ने कहा कि वर्ष १९८० में केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा बनाए गए वन संरक्षण कानून के बाद अगर उत्तराखंड में वनाग्नि का अध्ययन करें तो यह बात प्रमुखता से सामने आती है कि वनाग्नि की घटनाओं में बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण स्थानीय लोगों का वनों से लगाव कम होना है। क्योंकि वनों से जो उनके दिनचर्या का जुड़ाव था जानवरों के लिए घास पत्ती, घरेलू ईंधन उपयोग के लिए लकड़ी, घरेलू इस्तेमाल(Disaster management) के लिए हक हकूक की इमरती लकड़ी की उपलब्धता वो इस कानून ने समाप्त कर दी और उसके कारण स्थानीय लोगों की रुचि व लगाव जंगलों से कम हो गया।
जो प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं उनके लिए प्रकृति से ज्यादा हम स्वयं और हमारी सरकारें हैं जिम्मेदार
जिसके कारण पहले जो पूरा गांव जंगल की आग को बुझाने में वन कर्मियों का सहयोग करता था वो बंद हो गया और अब जंगल की आग को बुझाने का जिम्मा केवल वन विभाग व वन कर्मियों का रह गया जो बहुत मुश्किल है और इस कारण आज वनाग्नि की घटनाओं में बहुत वृद्धि होती है। धस्माना ने कहा कि आज उत्तराखंड में जो प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं उनके लिए प्रकृति से ज्यादा हम स्वयं जिम्मेदार हैं हमारी सरकारें जिम्मेदार हैं। अनियोजित व अवैज्ञानिक विकास, खनन, अंधाधुंध निर्माण, जल स्रोतों का अवैज्ञानिक दोहन, वनों का कटान आदि आदि। जिसे हम उत्तराखंड के लिए वरदान कह रहे हैं वो चार धाम आल वैदर रोड हमारे राज्य के लिए सबसे बड़ा अभिशाप बन गई है।
उत्तराखंड के हिमालय मध्य हिमालई भू भाग के साथ छेड़ छाड़ विनाशकारी होगी साबित-धस्माना
उन्होंने कहा कि पूरे चार धाम आल वैदर रोड रूट में सैकड़ों नए लैंड स्लाइड जोन विकसित हो गए हैं जिसके कारण रोजाना किसी न किसी जगह भूस्खलन व चट्टानें गिरने की घटनाएं घट रही हैं। धस्माना ने कहा कि उत्तराखंड का हिमालय मध्य हिमालई भू भाग है जो अभी शैशव काल में है और इसकी बनावट अभी जारी है जिसके कारण यह भूकंपीय दृष्टि से आती संवेदनशील है और इसलिए इस प्रकार से उसके साथ छेड़ छाड़(Disaster management) विनाशकारी ही साबित होगी। धस्माना ने राज्य में नदियों नालों खालों में हो रहे अवैज्ञानिक खनन का जिक्र करते हुए कहा कि आसान व जल्दी पैसा कमाने का तरीका है खनन और इसलिए सरकारों के संरक्षण में पिछले ढाई दशकों में जिस प्रकार से खनन माफिया पनपा है वह भी राज्य के पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत खतरनाक साबित हो रहा है।
“जलवायु लचीलापन के लिए सहयोगात्मक कार्रवाई पर राष्ट्रीय परामर्श” सफलतापूर्वक संपन्न
वर्ष २०१३ व इस वर्ष आयु प्राकृतिक आपदा के प्रभाव क्षेत्र का जिक्र करते हुए धस्माना ने कहा कि उत्तराखंड का कोई कोना नहीं बचा जहां आज आपदा से जनमानस प्रभावित ना हुआ हो। धस्माना ने कहा कि भविष्य में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर जलवायु परिवर्तन, आपदा प्रबंधन पर्यावरणीय चिंताएं व उनका प्रभावी समाधान कांग्रेस के प्राथमिकता वाले एजेंडे में होगा। इससे पूर्व दो दिवसीय “जलवायु लचीलापन के लिए सहयोगात्मक कार्रवाई पर राष्ट्रीय परामर्श” सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
इस कार्यक्रम में 80 से अधिक विशिष्ट प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया, जिनमें योजना आयोग, उत्तराखंड सरकार के उपाध्यक्ष, IMD देहरादून के प्रतिनिधि, दून विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित प्रोफेसर, जलवायु कार्यकर्ता, भूवैज्ञानिक, छात्र और सामुदायिक नेता शामिल थे। यह परामर्श पाँच प्रमुख संगठनों — HIMAD, DKD, AMAN, HESCO और TPVS — के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किया गया तथा डॉ. पुंडीर के नेतृत्व में उद्घाटित हुआ।
चर्चा का मुख्य विषय स्थानीय अनुकूलन प्रथाओं को सशक्त बनाना, आपदा प्रबंधन रणनीतियों को आगे बढ़ाना तथा कार्बन अवशोषण (carbon sequestration) पहल को प्रोत्साहित करना रहा। प्रतिभागियों ने राज्य-स्तरीय जलवायु कार्रवाई नीतियों को समुदाय-आधारित प्रयासों के साथ जोड़ने पर जोर दिया ताकि एक सुदृढ़ और टिकाऊ उत्तराखंड का निर्माण हो सके।
कार्यक्रम के दौरान DKD ने एक व्यापक दस्तावेज जारी किया –
“Comprehensive Documentation and Innovative Research Action on Climate Change Prevention, Mitigation & Adaptation Strategies for a Climate Resilient Uttarakhand.”
राज शेखर जोशी, उपाध्यक्ष, योजना आयोग, उत्तराखंड सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर शहरीकरण के प्रभाव को संबोधित करने की आवश्यकता पर बल दिया और “ईको-क्लब विकास” तथा “रणनीतिक योजना” की भूमिका पर चर्चा की। उन्होंने तीन मुख्य क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया।
- पारिस्थितिकी तंत्र मॉडलिंग (Ecosystem Modeling)
- रणनीतिक हस्तक्षेप (Strategic Interventions)
- कार्य-आधारित आर्थिक मॉडल (Action & Outcome-based Economic Models)
प्रो. कुसुम अरुणाचलम (दून विश्वविद्यालय) ने वनों और पारिस्थितिकी प्रणालियों की रक्षा के लिए अपक्षयित भूमि (degraded land) की पुनः प्राप्ति का आह्वान किया और कार्बन क्रेडिट पहल का समर्थन किया।
प्रो. वीरेंद्र पैनुली ने पारंपरिक और स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों, विशेष रूप से वृद्ध समुदायों की बुद्धिमत्ता को अपनाने की आवश्यकता बताई तथा एग्रोफोरेस्ट्री (agroforestry) को जलवायु लचीलापन का एक उपयोगी माध्यम बताया। तकनीकी सत्रों की अध्यक्षता डॉ. पल्लवी, प्रो. एम.एस. पंवार, और डॉ. गौरा(दून विश्वविद्यालय) ने की। उन्होंने “Understanding the Impact of Climate Change – Dimensions, Dynamics, and Evidence” विषय पर शोध प्रस्तुत किया। इन सत्रों में प्राथमिक व द्वितीयक शोध का उपयोग कर उत्तराखंड की जलवायु पर प्रभावों का अध्ययन किया गया और समुदाय आधारित योजना (Community-based Planning) एवं पंचायत स्तर पर योजना (Panchayat-level Planning) की वकालत की गई।
केदारनाथ और जोशीमठ जैसी आपदाओं(Disaster management) के केस स्टडीज़ के माध्यम से जलवायु-प्रेरित चुनौतियों की वास्तविक स्थितियों को सामने रखा गया। टी.डी.एच. जर्मनी (उत्तर भारत) के प्रतिनिधि मोहम्मद सलीम ने पर्यावरणीय अधिकारों को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि ऐसे अधिकारों(Disaster management) के अभाव में भविष्य की पीढ़ियाँ जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम भुगतेंगी।
पर्यावरणविद रघु तिवारी ने बताया कि इस वर्ष उत्तराखंड में जलवायु के रुझान चिंताजनक हैं वैश्विक ऊष्मीकरण के कारण मानसून असामान्य रूप से तिब्बती पठार तक पहुंच गया और अगस्त में पश्चिमी विक्षोभों की असामान्य उपस्थिति गंभीर संकेत देती है। डॉ. मोहन पंवार ने जलवायु-लचीली कृषि परियोजनाओं से मिले उत्साहजनक परिणाम साझा किए। उन्होंने बताया कि अब किसान सिंचित क्षेत्रों में दो-तीन फसलों की बजाय वर्षा-प्रधान क्षेत्रों में 16–17 फसल किस्में उगा रहे हैं। इससे कृषि की स्थिरता, फसल विविधता और स्थानीय अनुकूलन क्षमता में सुधार हुआ है।
“जलवायु लचीलापन के लिए सहयोगात्मक कार्रवाई पर राष्ट्रीय परामर्श” का समापन इस आह्वान के साथ हुआ कि स्थानीय जलवायु परिवर्तन मुद्दों को राज्य जलवायु कार्य योजना (State Climate Action Plan) में शामिल किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि समुदाय-आधारित प्रमाण और पारंपरिक ज्ञान उत्तराखंड की भावी जलवायु नीतियों की दिशा तय करें।