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Uttarakhand: विरासत महोत्सव के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की से झूम उठे दूनवासी

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देहरादून: उत्तराखंड के जाने-माने सांस्कृतिक कार्यक्रम ’विरासत आर्ट एंड हेरिटेज (Virasat mahotsav dehradun) फेस्टिवल 2023’ का शुभारंभ देहरादून कैंट क्षेत्र की विधायक सविता कपूर द्वारा दीप प्रज्वलन के साथ डॉ. बी. आर. अंबेडकर स्टेडियम (कौलागढ़ रोड) देहरादून में हुआ। कार्यक्रम के अन्य अतिथियों में ए.के. बालियान, पूर्व सीईडी पेट्रोन एलएनजी और ओएनजीसी के निदेशक- मानव संसाधन, अनसूया प्रसाद, डाक सेवाएं के निदेशक एवं एचएएल के पूर्व अध्यक्ष आर.माधवन और रीच विरासत के महासचिव आर.के.सिंह के साथ सूर्यकांत धस्माना मौजूद रहे।

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सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत उत्तराखंड के लोकप्रिय छोलिया नृत्य के (Virasat mahotsav dehradun) साथ हुआ जिसमें उत्तराखंड के प्रतिष्ठित कलाकारों ने प्रस्तुतियां दी एवं इस प्रस्तुती ने लोगों का मन मोह लिया। छोलिया एक पारंपरिक लोक नृत्य है जो भारतीय राज्य उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल और नेपाल के पश्चिमी प्रांत में उत्पन्न हुआ है। यह आज कुमाऊंनी और सुदूरपश्चिमी संस्कृति का प्रतीक बन गया है।

यह मूल रूप से बारात के साथ होने वाला तलवार नृत्य है लेकिन अब यह कई शुभ अवसरों पर किया जाता है। कुमाऊँ मण्डल के अल्मोडा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ जिलों तथा नेपाल के डोटी, बैतड़ी और धारचूला में विशेष रूप से लोकप्रिय है। इस तलवार नृत्य का इतिहास एक हजार साल से भी अधिक पुराना है और यह कुमाऊंनी लोगों और खास लोगों की मार्शल परंपराओं में निहित है। इसकी उत्पत्ति कुमाऊं के युद्धरत क्षत्रियों- खास और कत्यूरियों से हुई है, जब विवाह तलवारों की नोंक पर किए जाते थे।

युद्ध जैसे संगीत के साथ, तलवारों से सुसज्जित होकर वे अपने साथी नर्तकों के साथ नकली लड़ाई में संलग्न होकर पूरी तरह से समकालिक तरीके से नृत्य करते हैं। तिकोने लाल झंडे लिए हुए अपनी तलवारें लहराते हुए, चेहरों पर उग्र भावों के साथ युद्ध के लिए जा रहे योद्धाओं का आभास देते हैं जिसमें संगीतकार और तलवार नर्तक शामिल होते हैं। यह लोक नृत्य पहले पारंपरिक वाद्य यंत्र जिसमें ढोल, दमोऊ, नगाड़े जैसे कई यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता था।

इस बार पारंपरिक यंत्रों के साथ-साथ अपनी प्रस्तुति को और मनोरंजक बनाने के लिए कैसियो का इस्तेमाल भी किया गया। छोलिया नृत्य प्रस्तुति की शुरुआत उन्होंने देवताओं के आगमन से किया उसके बाद, बेडु पाको बारो मासा प्रस्तुत किया, फिर नव मूर्ति मदोबाज ,छोला युद्ध , मीनार जैसे प्रस्तुतियां दी। इस छोलिया नृत्य में मुख्य कलाकार, गोपाल राम- ढोल, दीपक राम – छोलिया, दिनेश कुमार – कैसियो, आनंद राम – गायक, दीवान राम -तुतुरी, बचिराम – मसकबीन , भार्दु राम – बीन बाजा, प्रेम प्रकाश – रणसिंघा, अमित कुमार – ताल, शंकर राम – दामो, जयल आर्या – छोलिया, इंदर राम – दामो पर अपनी प्रस्तुति दी।

वही कार्यक्रम के दूसरी प्रस्तुतियों में राकेश चौरसिया द्वारा बांसुरी वादन प्रस्तुत किया गया। राकेश ने प्रस्तुति की शुरुआत 7 ताल में राग मारू विहाग से की, उनके साथ तबले पर मिथिलेश झा ने संगत की। राकेश चौरसिया एक उत्कृष्ट पारिवारिक परंपरा से आने वाले बांसुरी वादक है। वह अपने चाचा, बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के सबसे निपुण शिष्यों में से एक हैं। उनकी असाधारण प्रतिभा और लगन उन्हें एक प्रतिभाशाली कलाकार बनाती है। ’स्वर’ और ’ताल’ का उनका प्रशिक्षण उनके काम में निपुणता से ज़ाहिर होता है।

राकेश कई बार दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हैं। जापान, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका में शास्त्रीय और अर्ध-शास्त्रीय संगीत समारोहों में दर्शकों का मनोरंजन कर चुके हैं। वह एक कुशल संगीतकार भी हैं, जिन्होंने भारतीय फिल्म उद्योग के अधिकांश प्रमुख दिग्गजों के साथ रिकॉर्डिंग की है। उन्हें महारानी एलिजाबेथ की रजत जयंती का जश्न मनाते हुए बीबीसी रेडियो पर दुनिया भर के दर्शकों के लिए चौबीस घंटे के लाइव संगीत प्रसारण के समापन के लिए आमंत्रित किया गया था। अपने प्रायोगिक कार्य के बावजूद, राकेश एक पूर्ण शास्त्रीय संगीतकार बनने के अपने मुख्य लक्ष्य से कभी नहीं भटके।

वह नियमित रूप से एथेंस में वोमैड फेस्टिवल, रूस, जापान, अमेरिका और यूरोप में ’फेस्टिवल्स ऑफ इंडिया’ जैसे प्रमुख महोत्सवों में दिखाई देते रहे हैं। उनकी बढ़ती परिपक्वता और स्थिति ने उन्हें भारत और विदेशों में प्रमुख कार्यक्रमों जैसे पेरिस में सेंट-डेनिस महोत्सव, इंग्लैंड में लीसेस्टर अंतर्राष्ट्रीय संगीत महोत्सव में एकल प्रदर्शन करने के लिए निमंत्रण दिया है। उन्हें साल 2007 में भारत के राष्ट्रपति, ए.पी.जे अब्दुल कलाम द्वारा भारतीय संगीत अकादमी पुरस्कार, 2008 में बिरला कलाकीरन पुरस्कार और 2011 में गुरु शिष्य पुरुस्कार से नवाजा गया।

राकेश चौरसिया जी का यह मानना है की अभी उन्हें अपने चाचा पंडित हरिप्रसाद चौरसिया एवं इस कला में उत्तीर्ण अन्य दिग्गजों से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है,। वे भारतीय शास्त्रीय संगीत में अपनी एक नई पहचान बनाने की क्षमता रखते है।मिथिलेश कुमार झा ने तबला की शिक्षा अपने पिता गोपीकांत झा और बाद में बुलबुल महाराज से ली। उन्हें सरोद वादक अमजद अली खान से निरंतर मार्गदर्शन प्राप्त करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। मिथिलेश तब से भारत और विदेशों में गायकों और वाद्ययंत्रकारों के साथ लगातार प्रस्तुतियां देते रहे हैं।

27 अक्टूबर से 10 नवंबर 2023 तक चलने वाला यह फेस्टिवल लोगों के लिए एक ऐसा मंच है जहां वे शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य के जाने-माने उस्तादों द्वारा कला, संस्कृति और संगीत का बेहद करीब से अनुभव कर सकते हैं। इस फेस्टिवल में परफॉर्म करने के लिये नामचीन कलाकारों को आमंत्रित किया गया है। इस फेस्टिवल में एक क्राफ्ट्स विलेज, क्विज़ीन स्टॉल्स, एक आर्ट फेयर, फोक म्यूजिक, बॉलीवुड-स्टाइल परफॉर्मेंसेस, हेरिटेज वॉक्स, आदि होंगे।

यह फेस्टिवल देश भर के लोगों को भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और उसके महत्व के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी प्राप्त करने का मौका देता है। फेस्टिवल का हर पहलू, जैसे कि आर्ट एक्जिबिशन, म्यूजिकल्स, फूड और हेरिटेज वॉक भारतीय धरोहर से जुड़े पारंपरिक मूल्यों को दर्शाता है। रीच की स्थापना 1995 में देहरादून में हुई थी, तबसे रीच देहरादून में विरासत महोत्सव का आयोजन करते आ रहा है। उदेश बस यही है कि भारत की कला, संस्कृति और विरासत के मूल्यों को बचा के रखा जाए और इन सांस्कृतिक मूल्यों को जन-जन तक पहुंचाया जाए।

विरासत महोत्सव कई ग्रामीण कलाओं को पुनर्जीवित करने में सहायक रहा है जो दर्शकों के कमी के कारण विलुप्त होने के कगार पर था। विरासत हमारे गांव की परंपरा, संगीत, नृत्य, शिल्प, पेंटिंग, मूर्तिकला, रंगमंच, कहानी सुनाना, पारंपरिक व्यंजन, आदि को सहेजने एवं आधुनिक जमाने के चलन में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इन्हीं वजह से हमारी शास्त्रीय और समकालीन कलाओं को पुणः पहचाना जाने लगा है। विरासत 2023 आपको मंत्रमुग्ध करने और एक अविस्मरणीय संगीत और सांस्कृतिक यात्रा पर फिर से ले जाने का वादा करता है।

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